छत्तीसगढ़ इतिहास
आदिवासी परंपरा: छत्तीसगढ़ के भंगाराव देवी के न्यायालय में देवी-देवताओं को सज़ा मिलनी है
नगरी: धमतरी जिले की सिहावा क्षेत्र की वनांचल और आदिवासी बाहुल्य समुदाय की ऐसा क्षेत्र, जहां कभी बस्तर राजघराने का सीमा हुआ करता था। मगर परिवर्तन की दौर में वर्तमान में,यह क्षेत्र बस्तर से अलग हो चुका है।बहरहाल इस इलाके के आदिवासी समुदाय,आज भी बस्तर राज परिवार की देव परंपरा प्रतिवर्ष निभाते आ रहे हैं।जिस तरह से इंसान अगर असंवैधानिक कार्य करते हैं और उनका परिणाम उन्हें न्यायिक हिरासत से गुजरना पड़ता है उसी प्रकार,ऐसा पारंपारिक देव अदालत जहां इष्ट देवी देवताओं के ग़लत की सज़ा देवी देवताओं के न्यायाधीश जिन्हें भंगाराव माई के नाम से लोग मानते हैं उनकी न्यायालय में खड़ा होना पड़ता है,हमारे और आपके लिए ये बात भले ही चौंकाने वाली बात हो,मगर छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के आदिवासी समाज के लिए ये बात पुरखों से चली आ रही है। भंगाराव देवी के प्रमुख गायता घुटकले निवासी प्रफुल्ल सामरथ और स्थानीय देव गायता चैतराम मरकाम लिखमा निवासी ने बताया आदिवासी समाज की रुढ़िजन्य देवप्रथा परंपरा अनुसार कुलदेवी-देवताओं को, भी अपने आप को साबित करना पड़ता है वो भी बाकायदा अदालत लगाकर। ये अनोखी अदालत ‘भंगाराव माई के दरबार’ में लगती है
भंगाराव माई का दरबार धमतरी जिले के कुर्सीघाट बोराई मार्ग में भादो के शुरुआती महीने में लगते हैं।बस्तर राजघराने से चली आ रहा सदियों पुराने,इस दरबार को देवी-देवताओं के न्यायालय के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भंगाराव की मान्यता के बिना देव सीमा में स्थापित कोई भी देवी-देवता कार्य नहीं कर सकते।
हर साल भादों के महीने में आदिवासी देवी-देवताओं के न्यायधीश भंगा राव माई का जात्रा होता है.इस वर्ष भी बड़े ही धूमधाम से बाजागाजा के साथ लिखमा घुटकल से विधि विधान से कुल देवता की सेवा अर्जी उपरांत देवी देवताओं का आगमन भंगाराव देव ठाना जात्रा में सम्मिलित हुए। जहां दर्शन और मनोकामनाएं को लेकर कई हजारों की संख्या में धमतरी,उड़ीसा और बस्तर के श्रद्धालु जात्रा में पहुंचे।
चर्चा के दौरान देव परिवार के प्रमुख महरू राम मरकाम,पुनाराम सामरथ,दुलार सामरथ,आरके सामरथ, गंगाराम सामरथ,उदेराम सामरथ,मंगऊ राम सामरथ,बीजूराम मरकाम,फूलसिंग साक्षी,राम सामरथ,जगत सामरथ,मिश्रीलाल नेताम,ईश्वर नेताम,मनोज साक्षी जिनकी अगुवाई में जात्रा की विधि विधान पुर्वक सेवा अर्जी से देव कार्य का,परंपरा अनुसार शुभारंभ हुई।जात्रा के दौरान सोलह परगना सिहावा,बीस कोस बस्तर और सात पाली उड़ीसा के देवी-देवता जात्रा में सम्मिलित हुए।वहीं इस देवजात्रा में महिलाओं का शामिल होना परंपरा अनुसार वर्जित है।
छहमासी मंदिर: छत्तीसगढ़ का एक प्राचीन धार्मिक स्थल
दुर्ग : छत्तीसगढ़ में बहुत से प्राचीन मंदिर हैं और हर मंदिर का अपना एक अलग महत्त्व हैं. और हर एक मंदिर की अलग-अलग मान्यता हैं. छत्तीसगढ़ में जितनी भी प्राचीन मंदिर हैं. हर मंदिर में कुछ न कुछ ख़ास बातें होती हैं. जिससे लोगों की आस्था जुडी हुई होती हैं.
ठीक इसी तरह दुर्ग जिला दुर्ग जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर ग्राम देवबलोदा में भगवान शिव प्राचीन मंदिर है। जो काफी रोचक तथ्यों से भरा हुआ हैं. लोग दूर दराज से यहाँ दर्शन करने पहुंचते हैं. मंदिर का नाम छहमासी मंदिर है। रहस्यों से भरे इस मंदिर से जुड़ी कई किवदंतियां हैं। एक कहानी ग्रामीणों ने सुनाई। बताया कि 7वीं शताब्दी में राजा विक्रमादित्य थे, जिन्होंने इस मंदिर का निर्माण कराया। कुछ कहते हैं कि इसका निर्माण 11वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच में हुआ है।
पत्थरों से बना है प्राचीन मंदिर
प्राचीन शिव मंदिर पत्थरों से बना है। इन पत्थरों को चूना, गुड़ व अन्य सामग्री के मिश्रण से जोड़ा गया है। इसके हर पत्थर में मां दुर्गा, काली, गणेश व हाथी, घोड़े के अलावा अन्य पौराणिक कलाकृतियां देखने को मिलती हैं। मंदिर के पुजारी ने बताया कि पहले छह महीने सिर्फ एक व्यक्ति रात में यह मंदिर बनाता था। इस वजह से इसे छहमासी मंदिर कहा जाता है।
इस वजह से अधूरा रह गया मंदिर
गांव के जानकार बताते है कि शिल्पकार की पत्नी रोज खाना लेकर आती थी। एक दिन उसकी बहन खाना लेकर आई। कारीगर नग्न अवस्था में मंदिर का निर्माण कर रहा था। अपनी बहन को देखकर वह मंदिर के निकट स्थित कुंड में कूद गया। उसकी बहन मंदिर के पीछे स्थित तालाब में कूद गई। इस वजह से मंदिर के ऊपर गुम्बद का निर्माण नहीं हो पाया। मंदिर अधूरा रह गया। आज भी इसी हालत में लोग यहां दर्शन करने पहुंचते हैं।
छह महीने में पूरी हो जाती है हर मनोकामना
इस प्राचीन मंदिर से लोगों की आस्था ऐसी है कि कोई भी मनोकामना छह महीने में पूरी हो जाती है। हर साल देशभर से करीब 2 से 3 लाख लोग दर्शन करने आते है। यहां पर महाशिवरात्रि में तीन दिनों का मेला भी लगता है। मेले के दौरान भक्तों की भीड़ दोगुनी हो जाती है।
"आदिवासी परंपरा: छत्तीसगढ़ के भंगाराव देवी के न्यायालय में देवी-देवताओं को सज़ा मिलनी है"
नगरी: धमतरी जिले की सिहावा क्षेत्र की वनांचल और आदिवासी बाहुल्य समुदाय की ऐसा क्षेत्र, जहां कभी बस्तर राजघराने का सीमा हुआ करता था। मगर परिवर्तन की दौर में वर्तमान में,यह क्षेत्र बस्तर से अलग हो चुका है।बहरहाल इस इलाके के आदिवासी समुदाय,आज भी बस्तर राज परिवार की देव परंपरा प्रतिवर्ष निभाते आ रहे हैं।जिस तरह से इंसान अगर असंवैधानिक कार्य करते हैं और उनका परिणाम उन्हें न्यायिक हिरासत से गुजरना पड़ता है उसी प्रकार,ऐसा पारंपारिक देव अदालत जहां इष्ट देवी देवताओं के ग़लत की सज़ा देवी देवताओं के न्यायाधीश जिन्हें भंगाराव माई के नाम से लोग मानते हैं उनकी न्यायालय में खड़ा होना पड़ता है,हमारे और आपके लिए ये बात भले ही चौंकाने वाली बात हो,मगर छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के आदिवासी समाज के लिए ये बात पुरखों से चली आ रही है। भंगाराव देवी के प्रमुख गायता घुटकले निवासी प्रफुल्ल सामरथ और स्थानीय देव गायता चैतराम मरकाम लिखमा निवासी ने बताया आदिवासी समाज की रुढ़िजन्य देवप्रथा परंपरा अनुसार कुलदेवी-देवताओं को, भी अपने आप को साबित करना पड़ता है वो भी बाकायदा अदालत लगाकर। ये अनोखी अदालत ‘भंगाराव माई के दरबार’ में लगती है
भंगाराव माई का दरबार धमतरी जिले के कुर्सीघाट बोराई मार्ग में भादो के शुरुआती महीने में लगते हैं।बस्तर राजघराने से चली आ रहा सदियों पुराने,इस दरबार को देवी-देवताओं के न्यायालय के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भंगाराव की मान्यता के बिना देव सीमा में स्थापित कोई भी देवी-देवता कार्य नहीं कर सकते।
हर साल भादों के महीने में आदिवासी देवी-देवताओं के न्यायधीश भंगा राव माई का जात्रा होता है.इस वर्ष भी बड़े ही धूमधाम से बाजागाजा के साथ लिखमा घुटकल से विधि विधान से कुल देवता की सेवा अर्जी उपरांत देवी देवताओं का आगमन भंगाराव देव ठाना जात्रा में सम्मिलित हुए। जहां दर्शन और मनोकामनाएं को लेकर कई हजारों की संख्या में धमतरी,उड़ीसा और बस्तर के श्रद्धालु जात्रा में पहुंचे।
चर्चा के दौरान देव परिवार के प्रमुख महरू राम मरकाम,पुनाराम सामरथ,दुलार सामरथ,आरके सामरथ, गंगाराम सामरथ,उदेराम सामरथ,मंगऊ राम सामरथ,बीजूराम मरकाम,फूलसिंग साक्षी,राम सामरथ,जगत सामरथ,मिश्रीलाल नेताम,ईश्वर नेताम,मनोज साक्षी जिनकी अगुवाई में जात्रा की विधि विधान पुर्वक सेवा अर्जी से देव कार्य का,परंपरा अनुसार शुभारंभ हुई।जात्रा के दौरान सोलह परगना सिहावा,बीस कोस बस्तर और सात पाली उड़ीसा के देवी-देवता जात्रा में सम्मिलित हुए।वहीं इस देवजात्रा में महिलाओं का शामिल होना परंपरा अनुसार वर्जित है।
आदिवासी समाज की पुरातन मान्यता है उनकी अपनी देव पद्धति है अपनी देवी-देवताओं की सेवा अर्जी परंपरा अनुसार करते हैं अपनी हर समस्याओं को उनके सामने रखते हैं,ताकि उन पर किसी तरह की विपत्ती न आए मगर जब देवी-देवता उनकी समस्याओं पर खरा नहीं उतरते, यूं कहें कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाते या असफ़ल हो जाते हैं तो गायता पुजारी व ग्रामीण जनों की शिकायत के आधार पर भंगाराव माई के अदालत में देव को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है।जहां इनकी सुनवाई होती है, अगर आरोप लगते हैं या दोषी पाए जाते हैं तो अराध्य देवी देवताओं को भी सज़ा मिलती है. आदिवासी समाज की परेशानियां दूर नहीं कर पाते तो उन्हें दोषी माना जाता है।भंगाराव की उपस्थिति में कई गांवों से आए,देवी-देवताओं की एक-एक कर देव प्रथा अनुसार देव प्रथा अनुसार शिनाख़्त किया जाता हैं.
फिर देव परिसर में ही अदालत लगती है. देवी-देवताओं पर लगने वाले आरोपों की गंभीरता से सुनवाई होती है. आरोपी पक्ष की ओर से दलील पेश करने सिरहा, पुजारी,गायता,माझी, पटेल आदि ग्राम के प्रमुख भी उपस्थित होते है। दोनों पक्षों की गंभीरता से सुनवाई के पश्चात आरोप सिद्ध होने पर तत्काल फ़ैसला भी सुनाया जाता है,देव परिसर के कुछ दूरी पर एक नाला है.इसे आम भाषा में कारागार भी कह सकते है। दोष साबित होने पर देवी-देवताओं के लाट,बैरंग,आंगा,डोली आदि को इसी नाले में रवानगी कर दिया जाता है इस तरह से देवी-देवताओं को सजा दी जाती है.
और इस जात्रा के पश्चात ही आदिवासी समाज की प्रमुख पर्व नवाखाई मनाने का दिन तिथि देव आदेशानुसार निर्धारित होती है।
क्षेत्र के जिला पंचायत सदस्य मनोज साक्षी क्या कहते हैं जात्रा को लेकर,, आदिवासी समुदाय वास्तव में प्रकृति और पुरखा पेन शक्ति के पूजक हैं और भंगाराव देवी की जात्रा को अनादिकाल से यह देव परंपरा को सिहावा परगना,उड़ीसा और बस्तर के आदिवासी समुदाय निभाते आ रहे हैं।
"हबीब साहब की 100वीं जयंती: छत्तीसगढ़ के महान कलाकार को सलाम, सीएम बघेल ने किया नमन"
रायपुर: छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, लोक-कला, लोक-रंग से अगर दुनिया के कई देश परिचित हैं तो उसकी एक बड़ी वजह हबीब साहब रहे हैं. वही हबीब साहब जिनकी आज 100वीं जयंती है. आज विशेष मौके पर एक बार फिर हबीब साहब को सुरता(याद) कर रहे हैं. एक ऐसे महान कलाकार जिन्होंने छत्तीसगढ़ की धरा में जन्म लिया और यहां की मिट्टी की खुशबू को देश-दुनिया में पहुंचाने का काम किया. अपनी अद्भुत नाट्य शैली के लिए विश्व विख्यात रहे हबीब तनवीर रायपुर के रहने वाले थे. प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हबीब तनवीर जी की 100वीं जयंती पर उन्हें नमन किया है.
सीएम भूपेश बघेल ने ट्वीट कर लिखा है कि ‘छत्तीसगढ़ के गौरव, अंचल की कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी स्व. हबीब तनवीर जी की जयंती पर हम सब उनका पावन स्मरण करते हैं. राज्य शासन द्वारा रंगकर्म के क्षेत्र में हबीब तनवीर जी के योगदानों को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उनके नाम से पुरस्कार प्रदान करने की भी घोषणा हमने की है. हबीब तनवीर जी को कई अवार्ड एवं वर्ष 2002 में पद्म विभूषण सम्मान मिला. वे 1972 से 1978 तक राज्यसभा सांसद भी रहे. उनका नाटक चरणदास चोर, एडिनवर्ग इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टीवल (1982) में पुरस्कृत होने वाला ये पहला भारतीय नाटक गया. उनकी प्रमुख कृतियों में आगरा बाजार (1954) चरणदास चोर (1975) शामिल है.’
हबीब तनवीर जी का जीवन परिचय
हबीब साहब का जन्म 1 सितंबर 1923 को बैजनाथ पारा में हुआ था. तनवीर साहब ने स्कूली शिक्षा रायपुर से और स्नातक की उपाधि नागपुर से ली. इसके बाद उन्होने एमए की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पूरी की. बचपन से कला के प्रति आकर्षित रहने वाले हबीब साहब ने एमए की शिक्षा लेने के बाद खुद को पूरी तरह से थियेटर के लिए समर्पित कर दिया. उन्होंने भारत के साथ-साथ कई देशों की यात्राएं की और दुनिया भर के रंगकर्म का अध्ययन किया. नाट्य विधा की बारीकियों को समझने के बाद हबीब साहब ने भोपाल में नया थियेटर के नाम से नाट्य संस्था की स्थापना की.
नया थियेटर के जरिए उन्होंने नाट्य यात्रा प्रारंभ की. इस यात्रा के दौरान उन्होंने यह महसूस किया कि छत्तीसगढ़ की लोक-कला, लोक-रंग को दुनिया के सामने भव्य मंचों में लाया जाए. लिहाजा उन्होंने प्रदेश भर से नाचा कलाकारों को इक्कट्ठा किया. उन्होंने लोक कलाकारों को नया थियेटर में शामिल कर अपनी नई पारी की शुरुआत की. इस दौरान उन्होने मिट्टी की गाड़ी नाटक का निर्देशन किया. यह संस्कृत में लिखित नाटक का छत्तीसगढ़ी रूपांतरण था, जो उनका पहला महत्वपूर्ण छत्तीसगढ़ी नाटक बना.
बताते हैं कि नाचा कलाकारों को साथ लेकर जब हबीब साहब देश-दुनिया की यात्रा पर निकले तो दुनिया भर के नाट्य प्रेमी प्राचीन लोक नाट्य शैली को देखकर दंग रह गए. जिस तरह से एक जौहरी पत्थर को तराशकर उसे चमकदार हीरा बना देता है, कुछ इसी तरह से हबीब साहब ने नाचा के कलाकारों को तराशकर उन्हें नाट्य मंचों का हीरा बनाने का काम किया था. उन्होने दुनिया को छत्तीसगढ़ की रंग-परंपरा, छत्तीसगढ़ के रंगकर्मियों की कलाकारी और यहां की समृद्ध संस्कृति को दिखाया.
तनवीर साहब के जीवन के बीच एक महत्वपूर्ण जानकारी जिसे साझा करना जरूरी है वह है दाऊ मंदराजी. छत्तीसगढ़ी नाचा-गम्मत में जहां दाऊ मंदराजी, रामचंद्र देशमुख का नाम लिया जाता है, वहीं नाचा-गम्मत को नाचा कलाकारों के साथ उसे रंगकर्म के रूप में विश्व विख्यात बनाने का श्रेय हबीब तनवीर को जाता है. हबीब तनवीर ने आगरा बाजार, मोर नाँव दामाद गांव के नाँव ससुराल, चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, राजरक्त से जैसे कई चर्चित नाटको का निर्देशन किया. ये वो नाटक थे जिसने छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के कलाकारों की पहचान पूरी दुनिया में कराई.
छत्तीसगढ़ी भाषा में निर्मित चरन दास चोर नाटक इतना प्रसिद्ध हुआ कि पूरी दुनिया ने जाना की छत्तीसगढ़ की नाचा रंग-परंपरा कितना समृद्ध और विशाल है. चरन दास चोर में चोर की भूमिका अदा करने वाले स्वर्गीय पद्मश्री गोविंद राम निर्मलकर को रंगकर्मियों के बीच एक बड़े मंचीय नायक के रूप में उभार दिया.
हबीब साहब के कुछ प्रमुख छत्तीसगढ़ी नाटक
चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, मोर नाँव दमाद, गाँव के नाँव ससुराल, मिट्टी की गाड़ी
छत्तीसगढ़ी लोक-गीतों, पहनावा का विशेष प्रयोग
हबीब साहब के नाटकों की एक सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि उन्होंने अपने अधिकतर नाटकों में छत्तीसगढ़ी लोक गीतों और पहनावा का प्रयोग किया. छत्तीसगढ़ी नाटकों में यह प्रयोग तो देखने में मिलता ही है, हिंदी के कई नाटकों में भी उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का समावेश किया. हबीब साहब के नाटकों में पंथी, पंडवानी, भरथरी, गौरा-गौरी, जस गीतों का विशेष आकर्षण देखने को मिलता है. इसके साथ ही उन्होंने करमा और ददरिया के कई पारंपरिक गीतों को अपने नाटकों में भरपूर स्थान दिया है.
वास्तव में हबीब साहब रंग-मंच के महानायक थे. ऐसे महान कलाकार को आज हम उनके जन्मदिवस पर सादर नमन करते हैं.
"छत्तीसगढ़ में अनोखा मंदिर : भाई-बहन का एक साथ दर्शन प्रतिबंधित, जानिए इसकी पीछे कहानी"
इस साल रक्षाबंधन का त्योहार 30-31 अगस्त 2023 यानी इन दोनों दिन मनाया जाएगा. ये त्योहार भाई-बहन के रिश्ते के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. रक्षाबंधन में बहनें अपने भाई को राखी बांधती हैं. इस दिन भाई-बहन धार्मिक स्थलों के दर्शन भगवान का आशीर्वाद लेते हैं और राखी का पर्व मनाते हैं.
रक्षाबंधन के इस मौके पर लोग कुछ खास जगहों पर जा सकते हैं, लेकिन भारत में एक ऐसा मंदिर भी है, जहां भाई-बहन को एक साथ कभी नहीं जाना चाहिए. इस मंदिर में भाई-बहन के साथ दर्शन और पूजा करने पर प्रतिबंध है. मंदिर से जुड़ी कुछ धार्मिक मान्यताएं हैं और कथाएं हैं. अगर आप भी रक्षाबंधन के मौके पर कहीं सफर की योजना बना रहे हैं या आम दिनों में भी भाई-बहन साथ कहीं घूमने जा रहे हैं तो इस मंदिर में एक साथ प्रवेश न करें.
छत्तीसगढ़ में है अनोखा मंदिर
बता दें कि छत्तीसगढ़ में एक अनोखा मंदिर है, जहां भाई बहन का एक साथ प्रवेश करना वर्जित है. राज्य के बलौदाबाजार के कसडोल के पास नारायणपुर गांव में स्थित मंदिर नारायणपुर के शिव मंदिर के नाम पर मशहूर है. इस मंदिर में भाई बहन को साथ दर्शन के लिए नहीं जाना चाहिए.
मंदिर का इतिहास और नक्काशी
इस मंदिर का निर्माण 7वीं से 8वीं शताब्दी के बीच कलचुरी शासकों ने कराया था. मंदिर लाल-काले बलुआ पत्थरों से बनाया गया है. मंदिर के स्तंभों पर कई सुंदर आकृतियां बनी हुई हैं. मंदिर 16 स्तंभों पर टिका हुआ है. हर स्तंभ पर खूबसूरत नक्काशी की गई है. मंदिर में छोटा सा संग्रहालय है, जहां खुदाई में मिली मूर्तियों को रखा गया है.
भाई बहन क्यों मंदिर में साथ नहीं जा सकते
यह एकमात्र मंदिर है, जहां भाई-बहन के एक साथ जाने पर पाबंदी है. इसके पीछे एक कहानी है. मंदिर का निर्माण रात के समय हुआ करता था. मंदिर छ महीने में तैयार किया गया था. मंदिर जनजाति समुदाय से जुड़ा है. शिल्पी नारायण रात के वक्त निर्वस्त्र होकर मंदिर का निर्माण करते थे.
मंदिर निर्माण करने वाले शिल्पी नारायण की पत्नी उन्हें खाना देने आती थीं. लेकिन एक शाम नारायण की पत्नी की जगह बहन खाना लेकर निर्माण स्थल पर आ गईं. क्योंकि शिल्पी नारायण नग्न होकर मंदिर निर्माण करते थे, बहन को देखकर उन्हें शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने मंदिर के शिखर से कूदकर अपनी जान दे दी. इस कारण भाई-बहन मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते हैं. इसके अलावा मंदिर अपने स्थापत्य कला के लिए मशहूर है. यहां की मुख्य दीवारों पर उकेरी गई हस्तमैथुन की मूर्तियों के कारण भी भाई-बहन यहां साथ आने में असहज महसूस करते हैं.
"चमत्कारी हनुमान मंदिर: अंबिकापुर के लमगांव में बढ़ती हुई मूर्ति के साथ आश्चर्यजनक कहानी"
रायपुर: अंबिकापुर के लुंड्रा विकासखंड के लमगांव में अद्भुत चमत्कारी हनुमान मंदिर है. ग्रामीण बताते हैं कि यहां स्थापित बजरंगबली की प्रतिमा अपने आप बढ़ती जा रही है. इस अद्भुत चमत्कार के चर्चे दूर-दूर तक पहुंच रहे हैं. इस वजह से लोग लमगांव में हनुमान जी के दर्शन के लिए पहुंचते हैं. मंदिर में हर शनिवार और मंगलवार को काफी भीड़ होती है, लोगों का मानना है की यहां सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साथ ही हर शनिवार को भंडारे का आयोजन भी किया जाता है.
80 वर्ष पहले यहां एक पेड़ के नीचे लगभग एक फीट से छोटी बजरंगबली की प्रतिमा दिखी थी. तभी से इस पेड़ के नीचे बजरंगबली की पूजा-अर्चना की जाने लगी. बाद में लोगों ने इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1995 में कराया था. पेड़ तो सूख गया, लेकिन बजरंगबली आज भी उसी स्थान पर विराजमान हैं. सबसे ख़ास बात यह की यहाँ वर्ष 2002 से 24 घंटे रामचरित मानस का पाठ किया जा रहा है. साथ ही अखंड दीप प्रज्वलित है.
बजरंगबली की अद्भुत महिमा तब लोगों को अचरज में डाल देती है जब उन्हें पता चलता है की एक फीट छोटी मूर्ति इतने वर्षों में बढ़ कर साढ़े तीन फीट से भी अधिक ऊंची हो चुकी है. बजरंगबली की मूर्ति की लंबाई लगातार बढ़ रही है.
हनुमान मंदिर, लमगांव से जुड़ी रोचक कहानी
लमगांव स्थित स्वयं प्रकट हनुमान जी की मूर्ति से जुड़ी कहानी बहुत ही दिलचस्प है, ऐसा माना जाता है की बाबा त्रिवेणी नाम के एक व्यक्ति थे जिनके सपने में हनुमान जी ने दर्शन दिए और कहा की वे एक पेड़ में फसें हुए उन्हें बाहर निकालें, ऐसा सपना उनको कई बार उसके बाद बाबा त्रिवेणी जी उस पेड़ के पास गए और उस पेड़ को काटकर देखा तो दंग रह गए, सच में वहाँ हनुमान जी की मूर्ति थी.
ऐसे पहुंच सकते हैं हनुमान मंदिर
अगर आप भी लमगांव के बजरंगबली के दर्शन करना चाहते हैं तो रायगढ़-अंबिकापुर मार्ग पर अंबिकापुर से 17 किलोमीटर दूर नेशनल हाइवे पर मंदिर का पहला द्वार आपको दिख जाएगा. इस द्वार से आगे बढ़ने पर लगभग दो किलोमीटर अंदर जाने के बाद इस हनुमान मंदिर में पहुंचा जा सकता है.
"रायपुर की 100 साल पुरानी मिठाई दुकान: ऐसी मिठाई के दीवाने जो बाजार में भी मशहूर हैं"
ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा, जिसे मीठाई पसंद न हो. मीठाई हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है. मीठाई के बिना कोई भी त्यौहार पूरा नहीं होता. हर शुभ काम की शुरुआत मीठे से ही होती है. हर शहर में आपको एक ऐसी मिठाई की दुकान मिल ही जाएगी जिसकी एक खास मिठाई का नाम सबकी जुबान पर चढ़ा होता है. अपने शहर रायपुर में ऐसी ही एक दुकान है, जिसका नाम है रामजी हलवाई की दुकान. रायपुर फेमस फ़ूड में आज हम इसी दुकान की फेमस बालूशाही के बारे में बताएंगे.
इस दुकान में हर समय आपको गरमागरम बालूशाही मिल जाएगी. इतना ही नहीं, अगर आप इस रास्ते से गुजर जाएंगे तो गर्मा गरम बालूशाही की खुशबू आपको अपनी ओर खींच लेगी और आप यहां रुकने को मजबूर हो ही जाएंगे.
आज भी सबसे कम कीमत की मिठाई
आज के समय में बाजार की किसी भी मिठाई की कीमत 400 रुपये से कम नहीं है. लेकिन रामजी हलवाई की दुकान की बालूशाही का दाम सिर्फ 140 रुपये किलो है. इसकी फेमस होने की एक वजह दाम भी है. वैसे तो आपको यहां हमेशा ही भीड़ मिलेगी. लेकिन त्योहारों में तो यहां का नजारा देखने लायक होता है. आम दिनों में भी लोग इंतजार करते हैं.
सभी ग्राहक एक समान
इस दुकान की एक और सबसे अच्छी बात ये है कि यहां अपने सभी ग्राहक को एक समान माना जाते हैं. यानी यहां कोई 20 रुपये की बालूशाही भी लेने आया हो या फिर 20 किलो बालूशाही लेने आया हो, सभी ग्राहक इनके लिए एक समान हैं. यदि कम मात्रा में लेने वाला ग्राहक पहले से आया है और ज्यादा मात्रा में लेने वाला बाद में आया है, तो भी यहां पहले आए ग्राहक को ही पहले बालूशाही दी जाती है.
100 साल से स्वाद कायम
दुकान संचालक विनोद अग्रवाल बताते हैं कि 100 साल पहले उनके पूर्वजों ने इस दुकान की नींव रखी थी. वे चौथी पीढ़ी से हैं. 100 सालों में दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, पर इनकी बालूशाही का स्वाद जस का तस है. गद्दी भी नहीं बदली है. विनोद अग्रवाल कहते हैं कि बालूशाही पसंद करने वाले दूर-दूर से आते हैं. यहां तक कि रायपुर छत्तीसगढ़ के अलावा विदेशों में भी उनकी बालूशाही के दीवाने है. कई ऐसे परिवार हैं जो अपने रिश्तेदारों के यहां विदेश जाते हैं, तो यहां की बालूशाही पैक करवा के ले जाते हैं.
यहां के ये आइटम भी फेमस
यहां पर आपको कई तहर की मिठाई, जैसे- गुलाब जामुन, बूंद लड्डू, नारियल बर्फी, बेसन बर्फी, जलेबी के अलावा आपको मिक्सचर की कई वेराइटी मिल जाएगी. एक और सबसे अच्छी बात ये है कि आपको सारे आइटम अपनी आंखों के सामने बनते हुए दिखेंगे. यहां सफाई का भी बहुत ख्याल रखा जाता है.
भगवान राम द्वारा भोलेनाथ की पूजा की गई छत्तीसगढ़ का विशेष मंदिर, जानें इसकी विशेषता
आरंग: आज सावन का दूसरा सोमवार है. ‘मंदिरों का नगर’ के नाम से प्रसिद्ध आरंग शिवमय हो गया है. यहां के शिवालयों में सुबह से ही भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी है. यहां के सबसे प्राचीन मंदिरो में से एक बाबा बागेश्वरनाथ मंदिर में भी भक्तों की भारी भीड़ देखी गई. यहां पूरे सावन माह के दौरान रोजाना रुद्राभिषेक किया जा रहा है.
कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान श्री राम ने बाबा बागेश्वर नाथ मंदिर में रुक कर भोलेनाथ की पूजा की थी. वनवास के दौरान भगवान श्री राम के यहां श्री बागेश्वर नाथ बाबा मंदिर में रुकने के प्रमाण से यह लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है. बता दें कि वाल्मीकि रामायण में इस मंदिर का उल्लेख राम वन गमन पथ के रूप में मिलता है. सांस्कृतिक शोध संस्थान व्यास नई दिल्ली के शोध कर्ता डॉ. रामअवतार शर्मा के अनुसार भी श्रीराम जी वनवास के दौरान जिन 249 स्थानों में रुके थे उनमें से एक आरंग के श्री बागेश्वर नाथ मंदिर भी है, जो की उनकी पुस्तक में “जंह जंह राम चरण चलि जाहि” में 98 नंबर पर उल्लेखित है.
शिवलिंग पर पड़ती है सूर्य की पहली किरण
108 खंभों से निर्मित इस मंदिर में 24 खंभे गर्भगृह मंडप के लिए है. शेष 84 खंभों से मंदिर के चारों ओर चार दीवारी बनाई गई है. यह मंदिर पूर्वाभिमुख है. यहां के श्रद्धालु बताते हैं कि सूर्योदय की पहली किरण मंदिर के गर्भगृह में भोलेनाथ की मूर्ति पर सीधा पड़ती है. यहां शिवलिंग का विशेष श्रृंगार के साथ पूजा अर्चना प्राख्यात है. इस मार्ग से जब भी जगतगुरु शंकराचार्य गुजरते हैं, तो भगवान भोलेनाथ का दर्शन करने अवश्य पहुंचते हैं.
छत्तीसगढ़ में विशेष महत्व हमर पहला त्यौहार के, बैल और हल की होती है पूजा, युवा गेड़ी चढ़कर लेते है आनंद
छत्तीसगढ़ के हर निवासी के लिए हरेली त्यौहार बहुत खास है। क्योंकि हरेली छत्तीसगढ़ का पहला त्यौहार है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह त्यौहार परंपरागत् रूप से उत्साह के साथ मनाया जाता है।
इस दिन किसान खेती-किसानी में उपयोग आने वाले कृषि यंत्रों की पूजा करते हैं गांव में बच्चे और युवा गेड़ी का आनंद लेते हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पहल पर लोक महत्व के इस पर्व पर सार्वजनिक अवकाश भी घोषित किया गया है।
इससे छत्तीसगढ़ की संस्कृति और लोक पर्वों की महत्ता भी बढ़ गई है। लोक संस्कृति इस पर्व में अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने के लिए छत्तीसगढ़िया ओलंपिक की भी शुरूआत की जा रही है।
जाने महत्व
दरसअल, हरेली छत्तीसगढ़ के लिए बहुत ही खास है और हमारे अन्नदाताओं के असीम मेहनत का सम्मान है। ग्रामीण इस पर्व को बड़े ही उत्साह के साथ मानते है। भगवान को खुश करने छत्तीसगढ़िया व्यंजन बना कर भोग लगाया जाता हैं।
वहीं, इस मौसम में फैलने वाले बैक्टीरीया-वायरस और मौसमी कीड़े मकोड़े से बचने घरों के दरवाजे पर नीम की पत्तीयां लगाई जाती हैं, जो हवा को शुद्ध करती है। गांव में पौनी-पसारी जैसे राऊत व बैगा हर घर के दरवाजे पर नीम की डाली खींचते हैं। गांव में लोहार अनिष्ट की आशंका को दूर करने के लिए चौखट में कील लगाते हैं। यह परम्परा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यमान है।
किसान भाई इस दिन पशुधन आदि को नहला-धुला कर पूजा करते हैं। गेहूं आटे को गंथ कर गोल-गोल बनाकर अरंडी या खम्हार पेड़ के पत्ते में लपेटकर गोधन को औषधि खिलाते हैं। ताकि गोधन को विभिन्न रोगों से बचाया जा सके।
औजारों की पूजा
वर्षा ऋतु में धरती हरा चादर ओड़ लेती है। वातावरण चारों ओर हरा-भरा नजर आने लगता है। हरेली पर्व आते तक खरीफ फसल आदि की खेती-किसानी का कार्य लगभग हो जाता है। माताएं गुड़ का चीला बनाती हैं। कृषि औजारों को धोकर, धूप-दीप से पूजा के बाद नारियल, गुड़ का चीला भ लगाया जाता है। गांव के ठाकुर देव की पूजा की जाती है और उनको नारियल अर्पण किया जाता है।
बच्चे और युवा गेड़ी चढ़कर लेते है आनंद
हरेली तिहार पर बच्चे और युवा गेड़ी चढ़कर आनंद लेते है। गड़ी बांस से बनाई जाती है। दो बांस में बराबर दूरी पर कील लगाई जाती है। एक और बांस के टुकड़ों को बीच से फाड़कर उन्हें दो भागों में बांटा जाता है। फिर नारियल बूच की रस्सी से बांधकर दो खांचे बनाए जाते है।
यह खांचे पैर दान का काम करता है जिसे लंबाई में पहले कांटे गए दो बांसों में लगाई गई कील के ऊपर बांध दिया जाता है।गेड़ी पर चलते समय रच- रच की ध्वनि निकलती हैं, जो वातावरण को संगीतमय बना देती है।
छत्तीसगढ़ी व्यंजन से पूजा और खेल
लकड़ी से बनी गेड़ी गांव में बारिश के समय कीचड़ आदि से बचाव में भी काफी उपयोगी होती है। गेड़ी से गली का भ्रमण करने का अपना अलग ही आनंद होता है। किसान अपने खेती-किसानी के उपयोग में आने वाले औजार नांगर, कोपर, दतारी, टंगिया, बसुला, कुदारी, सब्बल, गैती आदि की पूजा कर छत्तीसगढ़ी व्यंजन गुलगुल भजिया व गुड़हा चीला का भोग लगाते हैं।
इसके अलावा गेड़ी की पूजा भी की जाती है। शाम को मनोरंजन के लिए गांवो में युवा वर्ग, बच्चे गांव के मैदान में नारियल फेंक, कबड्डी आदि कई तरह के खेल खेलते हैं। बहु-बेटियां सावन झूला, बिल्लस, खो-खो, फुगड़ी आदि खेल का आनंद लेती हैं।
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राजधानी से 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है भकुर्रा महादेव मंदिर, 3 से 80 फीट तक बढ़ते शिवलिंग की कहानी
गरियाबंद जिला: भूतेश्वर महादेव की ऊंचाई में बढ़ोतरी की कहानी
गरियाबंद जिला, जो छत्तीसगढ़ की राजधानी से केवल 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, इसमें स्थित है ग्राम मरौदा का वन्यजीवी क्षेत्र, जहां प्राकृतिक शिवलिंग भूतेश्वर महादेव स्थित है। इस शिवलिंग की ऊंचाई की वजह से यह धार्मिक स्थल पूरे विश्व में मशहूर हो रहा है। भकुर्रा महादेव के नाम से भी जाना जाता है, जो अर्धनारीश्वर के स्वरूप में भी प्रसिद्ध है।
शिवलिंग की ऊंचाई को लेकर ग्राम मरौदा के भूतेश्वर महादेव के पुजारी रामांधार का कहना है कि हर सावन मास में कांवड़ियों द्वारा भूतेश्वर महादेव की पूजा-अर्चना की जाती है। महाशिवरात्रि पर इस शिवलिंग की ऊंचाई की मापदंड की जाती है।
भूतेश्वर महादेव संचालन समिति से जुड़े मनोहर लाल देवांगन ने बताया कि भूतेश्वर महादेव को भकुर्रा महादेव भी कहा जाता है। यह विश्व का पहला ऐसा शिवलिंग हो सकता है, जिसकी ऊंचाई हर साल बढ़ती है। इस स्थान पर 17 गांवों की समिति द्वारा सेवा कार्य संचालित किया जाता है।
भूतेश्वर महादेव की ऊंचाई के विवरण को 1952 में प्रकाशित कल्याण तीर्थांक के पृष्ठ क्रमांक 408 में दर्ज किया गया है। उसमें इस शिवलिंग की 35 फीट की ऊंचाई और 150 फीट का व्यास उल्लेखित है। 1978 में इसकी ऊंचाई को 40 फीट बताया गया है। 1987 में यह 55 फीट बढ़ी और 1994 में थेडोलाइट मशीन के माध्यम से नापने पर इसकी ऊंचाई 62 फीट और व्यास 290 फीट पाया गया। वर्तमान में इस शिवलिंग की ऊंचाई 80 फीट बताई जा रही है।
छत्तीसगढ़ के इतिहास ज्ञानी, डॉ. दीपक शर्मा के मुताबिक, इस शिवलिंग पर छूरा क्षेत्र के जमींदारों ने कभी हाथी पर चढ़कर अभिषेक किया करते थे। शिवलिंग पर एक छोटी सी दरार भी होती है, जिसे कई लोग अर्धनारीश्वर के स्वरूप मानते हैं। मंदिर परिसर में छोटे-छोटे मंदिर भी स्थापित हैं।
पहले यहां नंदी की भकुर्राहट सुनाई देती थी, जिसके कारण इसे भकुर्रा के नाम से जाना जाता है। आजादी से पहले यहां घने जंगल फैला हुआ था। मरौदा गांव में एक लगभग 3 फीट ऊंची पत्थर की शिवालय जैसी चीज थी, जिसे लोगों ने भकुर्रा महादेव के नाम से पुकारा। जब शिवलिंग बढ़ने लगा, तब इसके प्रताप की जानकारी मिली। भकूर्रन के ध्वनि को नंदी का भकुर्राना माना गया। इसके बाद से यहां का नाम भकुर्रा महादेव के रूप में प्रचलित हो गया।
चिंगरा पगार वाटरफॉल का मनमोहक दृश्य और नजारा मानसून में बढ़ जाती है खूबसूरती
चिंगरा पगार जलप्रपात: मनोहारी दृश्य और आकर्षण से भरपूर पिकनिक स्थल
चिंगरा पगार वाटरफॉल का मनोहारी दृश्य और आकर्षण आपको बेहद पसंद आएगा। यहां लोग अपने पिकनिक के साथ आकर्षक रील्स बनाते नजर आएंगे। रायपुर के आसपास स्थित प्रमुख और श्रेष्ठ पिकनिक स्थलों में इस जलप्रपात का भी नाम होता है।
गरियाबंद जिला पर्यटन के दृष्टिकोण से बहुत समृद्ध है। यहां आपको हर जगह सुंदर पहाड़ियां देखने को मिलेंगी। छत्तीसगढ़ में चित्रकोट और तीर्थगढ़ जलप्रपात जैसे कई जलप्रपात अपनी पहचान बना चुके हैं। आज हम गरियाबंद जिले के चिंगरा पगार जलप्रपात की बात कर रहे हैं, जो अपने मनोहारी दृश्य के कारण लोगों को आकर्षित करता है।
यह जलप्रपात महासमुंद जिले से 64.4 किलोमीटर और रायपुर से 90 किलोमीटर दूर गरियाबंद जिले में स्थित है। चिंगारा गांव के कारण इसे चिंगारा जलप्रपात के नाम से भी जाना जाता है।
जलप्रपात के साथ एक पिकनिक स्थल भी है
युवाओं के बीच यह वाटरफॉल बहुत लोकप्रिय है। यहां के मनोहारी दृश्य और आकर्षण आपको बेहद पसंद आएंगे। अधिकांश लोग यहां पिकनिक के साथ इंस्टाग्राम पर रील्स बनाते हुए नजर आएंगे। रायपुर के आस-पास स्थित प्रमुख और श्रेष्ठ पिकनिक स्थलों में इस जलप्रपात का भी नाम आता है। यह जलप्रपात एक पिकनिक स्थल भी है। कई लोग इस जगह पर पिकनिक के लिए आते हैं। पानी की उचित व्यवस्था के कारण इस पिकनिक स्थल का प्रशंसा किया जाता है। वाटरफॉल में पिकनिक के लिए सर्वोत्तम स्थान है।
पूरे साल भीड़ रहती है
चिंगरा पगार जलप्रपात बहुत ही सुंदर है और यहां पूरे साल लोगों की भीड़ लगी रहती है। ज्यादातर बारिश के समय इस जगह पर लोगों की भीड़ देखने योग्य होती है। जंगल से आने वाला पानी पहाड़ की ऊंचाई से गिरकर खूबसूरत चिंगरा पगार का निर्माण करता है। इसकी सुंदरता को देखने के लिए बाहर से लोग यहां आते हैं। चिंगरा पगार जलप्रपात तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग उपलब्ध है। यह सड़क से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और जलप्रपात तक पहुँचने के लिए 500 मीटर पैदल चलना होता है।
छत्तीसगढ़ में सबसे पहले यहीं माता सीता ने मवई नदी में पखारे थे पांव
माता सीता ने स्थापित की रसोई, यह पुण्य भूमि है सीतामढ़ी हरचौका
छत्तीसगढ़ के लोगों ने सहेजकर रखी हैं भगवान श्रीराम से जुड़ी स्मृतियां
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने रामवनगमन पर्यटन परिपथ विकसित कर इस पुण्यभूमि को संवारने की अनुपम पहल की
यह छत्तीसगढ़ में भगवान श्रीराम का प्रवेश द्वार, माता सीता से संबंधित अनुश्रुति
रामकथा के अरण्य कांड के अद्भुत सुंदर और अविस्मरणीय स्मृतियों को समेटे हुए है सीतामढ़ी हरचौका
रायपुर, मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर जिले में सीतामढ़ी हरचौका ऐसी जगह है जहाँ वनवास के दौरान प्रभु श्रीराम और माता सीता के कदम छत्तीसगढ़ में पड़े थे और यह भूमि पुण्यभूमि हो गई। मवई नदी ने माता सीता के पैर पखारे। वनवास के दौरान अपना आरंभिक समय प्रभु श्रीराम ने यहीं बिताया और माता सीता और भ्राता लक्ष्मण ने उनका साथ निभाया। माता सीता ने यहां रसोई बनाई और इस वनप्रदेश में भगवान श्रीराम की गृहस्थी बसी। भगवान श्रीराम से जुड़े इस पुण्यस्थल के बारे में स्थानीय जनश्रुतियां तो थीं लेकिन श्रद्धालुओं के लिए पर्यटन नक्शे में इस जगह की जानकारी थी।
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की सरकार ने रामवनगमन पर्यटन परिपथ बनाने की पहल की ताकि यहाँ आने वाले स्थानीय श्रद्धालुओं को भी जरूरी सुविधा मिल सके और देश-विदेश में बसे राम भक्त उन तक पहुंचे। अब यह सुंदर पुण्यस्थली भक्तों के लिए पूरी तरह तैयार है। इसका वैभव और इसका आध्यात्मिक महत्व अब लोगों के लिए सहज उपलब्ध है। भगवान श्रीराम और माता सीता से जुड़ी इस सुंदर पुण्य भूमि की गुफाओं में 17 कक्ष हैं। इस स्थान को हरचौका कहा जाता है और सीता की रसोई के नाम से भी लोग इसे जानते है।
सीतामढ़ी हरचौका - भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास काल का अधिकांश समय दण्डकारण्य में व्यतीत हुआ। वनवास काल में भगवान श्रीराम, पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ जहां-जहां ठहरे, उनके चरण जहां पड़े, ऐसे 75 स्थानों को चिन्हांकित किया गया हैै। इनमें से प्रथम 09 स्थानों को विश्व स्तरीय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की शुरुआत छत्तीसगढ़ सरकार ने की है। राम वनगमन पर्यटन परिपथ परियोजना की शुरूआत मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर जिले के ‘सीतामढ़ी हरचौका’ नामक स्थान से होती है। मवई नदी के किनारे स्थित सीतामढ़ी हरचौका, दण्डकारण्य का प्रारंभिक स्थल है, जहां से वनवास काल के दौरान भगवान श्री राम का आगमन छत्तीसगढ़ की धरती पर हुआ था। सीतामढ़ी- हरचौका के पुरातात्विक महत्व को संरक्षित करने के लिए इस परिपथ के प्रमुख स्थलों का पर्यटन तीर्थ के रूप में विकास किया जा रहा है।
शिलाखंड पर भगवान राम के पदचिन्ह
सीतामढ़ी हरचौका में विशाल शिलाखंड स्थित है, जिसे लोग भगवान राम का पद चिन्ह मानते हैं। लोक आस्था और विश्वास के कारण लोग शिलाखंड की पूजा-अर्चना करते है। प्रभु राम के पदचिन्ह का पुरातात्विक महत्व होने के कारण इस पर शोध कार्य भी जारी है।
छत्तीसगढ़ में राम लोक मानस में बसे हैं। यह सुखद संयोग है कि छत्तीसगढ़ में उनसे जुड़े अनेक स्थान हैं जो उनके प्रसंगों को रेखांकित करते हैं। वनवासी राम का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक समरसता का प्रतीक है। भगवान राम ने वनगमन के समय हमेशा समाज के वंचित वर्ग को गले लगाया।
पर्यटन तीर्थ के रूप में विकास
सीतामढ़ी-हरचौका को लोेक आस्था के केन्द्र के रूप में विकसित करने का कार्य किया जा रहा है। नदी के घाट का सौंदर्यकरण चल रहा है। यहां पर्यटकों के ठहरने के लिए आश्रम भी निर्माणाधीन है और खान-पान की व्यवस्था के लिए कैफेटेरिया भी बनाया जा रहा है। यहां से भगवान राम की 25 फीट ऊंची प्रतिमा भी नजर आएगी।
कैसे पहुंचे सीतामढ़ी हरचौका
राजधानी रायपुर से मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर जिला मुख्यालय मनेन्द्रगढ़ की दूरी लगभग 400 किमी. है और सड़क मार्ग से सीधे हरचौका पहुंच सकते है।
राजधानी रायपुर से यहां पहुंचने के लिए सीधी ट्रेन उपलब्ध है जो बैकुंठपुर रोड स्टेशन तक जाती है। यहां से लगभग 170 किमी. की दूरी पर सीतामढ़ी-हरचौका स्थित है। बैकुंठपुर रोड स्टेशन से सीतामढ़ी- हरचौका जाने के लिए टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है।
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TGB मीडिया द्वारा एक नई पहल,श्री अखण्ड रामनाम सप्ताह का सीधा प्रसारण के साथ राम भक्तो का हार्दिक स्वागत
कोरोनाकाल के अवरोध के बाद हो रहे इस महा आयोजन में जनमानस का उत्साह और बढ़ चढ़ कर भागीदारी स्पष्ट रुप से नजर आ रही थी,टोलियों के स्वागत एवं श्रद्धालुओं को सुविधा प्रदान करने के लिए शहर के विभिन्न राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा रथयात्रा मार्ग पर जगह जगह पंडाल लगाये गये थे, और उनके द्वारा जहां एक ओर टोलियों का स्वागत करते हुए विभिन्न प्रतीक चिन्ह अर्पित किये जा रहे थे,वहीं श्रद्धालुओं की सेवा के तहत जगह जगह खान पान के विविध सामाग्री का भी वितरण किया जा रहा था।
मासिक शिवरात्रि : कल करे ये उपाय विवाह में आ रही बाधाओं से मिलेगा छुटकारा
दिसंबर माह की शुरुआत आज से हो चुकी है और नए महीने में व्रतों और त्योहारों का भी सिलसिला शुरू हो गया है. वैसे तो मार्गशीर्ष माह ही चल रही है. मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन मासिक शविरात्रि मनाई जाती है. इस बार 2 दिसंबर, गुरुवार के दिन मासिक शिवरात्रि का व्रत किया जाएगा. इस दिन माता पार्वती और शिव जी दोनों की पूजा की जाती है. इस दिन रात्रि पूजा का विशेष महत्व है.
मान्यता है कि इस दिन रात के समय सोना नहीं चाहिए. शिवरात्रि के व्रत के दिन रात में जागरण कर भगवान शिव की उपासना की जाती है. ऐसा करने से व्यक्ति के बड़े से बड़े काम भी बन जाते हैं. कहते हैं कि जिन लोगों को विवाह में बाधाएं आ रही हैं, और वैवाहिक जीवन कष्टमय हो रहा है, ऐसे लोगों को भी मासिक शिवरात्रि का व्रत रखने की सलाह दी जाती है. मान्यता है कि मासिक शिवरात्रि के दिन महादेव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना करने से विवाह से जुड़ी तमाम समस्याओं से छुटकारा मिलता है. आइए जानते हैं मासिक शिवरात्रि के दिन किन उपायों को किया जा सकता है.
अगर आप शादी के लिए योग्य पार्टनर की तलाश कर रहे हैं, तो शिवरात्रि के दिन विधि पूर्वक भगवान शिव और पार्वती का व्रत और पूजन करने से लाभ होगा. फिर रूद्राक्ष हाथ में लेकर‘ॐ गौरी शंकर नमः’ मंत्र का जाप कम से कम 108 बार करें. इसके बाद रुद्राक्ष को गंगाजल से साफ करके लाल धागे में डालकर धारण कर लें. इसे तब तक धारण करना है जब तक मनोकामना पूरी न हो जाए. रात में भी शिव और पार्वती के इस मंत्र का जाप करने से जल्द ही मनोकामना पूर्ण होगी.
अगर किसी व्यक्ति के वैवाहिक जीवन में किसी तरह की कोई समस्या आ रही है, तो मासिक शिवरात्रि के दिन शिव-पार्वती की शादी की तस्वीर घर में लाकर पूजा के स्थान पर लगाएं. इस तस्वीर की नियमित रूप से पूजा करें और रुद्राक्ष की माला से ‘हे गौरी शंकर अर्धागिंनी यथा त्वं शंकर प्रिया तथा माम कुरू कल्याणी कान्त कान्ता सुदुर्लभम्’ मंत्र का 108 बार जाप करें. नियमित रूप से ऐसा करने से जीवन में सभी समस्याओं का अंत होगा.
अगर विवाह को लेकर बार-बार किसी तरह की अड़चन आ रही है, तो शिवरात्रि के दिन भगवान शिव के मंदिर में 5 नारियल ले जाएं. शिवलिंग के समक्ष आसन पर बैठें और शिव जी का जलाभिषेक करें. उन्हें चंदन, पुष्प, धतूरा आदि अर्पित करें. इसके बाद ‘ॐ श्रीं वर प्रदाय श्री नमः’ मंत्र का 5 माला जाप करें. इसके बाद सभी नारियल शिव जी को अर्पित कर दें. इससे विवाह में आ रहीं अड़चनें कुछ ही समय में दूर हो जाएंगी.
CG – इधर चल रही थी बारात जाने की तैयारी, तभी दूल्हा हुआ फरार…
अम्बागढ़। क्षेत्र के ग्राम भनसुला में शादी समारोह चल रहा था। शादी की तमाम तैयारियां पूरी हो चुकी थी। बारात भी पुरे उत्साह के साथ जाने को तैयार थी। तभी कुछ ऐसा हुआ की खुशनुमा माहौल बदल गया।
दरअसल यह मामला अम्बागढ़ चौकी से पांच किलोमीटर दूर भनसुला गांव का है, जहां से बैंड बाजा और बारात के साथ बाराती ग्राम जोशीलमती थाना गैंदाटोला पहुंचने वाले थे। तभी दूल्हा टोमन सिन्हा फ़रार हो गया।
दुल्हन पक्ष के लोग दूल्हे और बारातियों के स्वागत की तैयारी कर रहे थे। पर तभी अचानक बारात निकलने से पहले दूल्हा सुबह से फरार हो गया। जिससे दोनों परिवार में शादी के समारोह के बीच हड़कंप मच गया है। अचानक दूल्हे के फरार हो जाने से दोनों परिवारों मे मेहमान से लेकर घर वालो के होश उड़े हुए हैं। इधर पूरा मामला अंबागढ़ चौकी पुलिस के पहुंचा है, जहां दूल्हे का आखिरी लोकेशन राजनांदगांव पोस्ट ऑफिस बताया जा रहा है। अब पुलिस दूल्हे को तलाशने में जुटी हुई है।